ELKDTAL Review: अभिनय बढ़िया, लेकिन सस्पेंस के चक्कर में कबाड़ा हो गई जरूरी कहानी
सोनम कपूर आहूजा, अनिल कपूर और राजकुमार राव की फिल्म एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा रिलीज हो गई है. इसका निर्देशन शैली चोपड़ा धर ने किया है. मूवी में समलैंगिक रिश्ते को दिखाया गया है. जानते हैं कैसी बनी है ये फिल्म.
फिल्म- एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा
कलाकार- सोनम कपूर, अनिल कपूर, जूही चावला, राजकुमार राव, रेजीना कसांड्रा अन्य
निर्देशक- शैली चोपड़ा धर
रेटिंग- 1.5
'एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा' रिलीज हो गई है. इसी के साथ शैली चोपड़ा धर के रूप में एक और निर्देशक ने बॉलीवुड डेब्यू कर लिया. इसका निर्माण फॉक्स स्टार के साथ विधु विनोद चोपड़ा ने किया है. करीब 2 घंटे लंबी फिल्म को देखने के बाद दिमाग में दो सवाल बनते हैं. पहला इसे बनाया क्यों गया? और दूसरा यह कि राजकुमार राव ने आखिर क्यों ये फिल्म की?
फिल्म में दो कहानियां हैं. एक स्वीटी (सोनम कपूर आहूजा) की और दूसरी साहिल मिर्जा (राजकुमार राव) की. वैसे अहम स्वीटी की कहानी है, जिसके साथ साहिल मिर्जा की कहानी जुड़कर चलती रहती है. स्वीटी, मोगा (पंजाब का एक छोटा शहर) की लड़की है. उसके पिता बलवीर चौधरी (अनिल कपूर) गारमेंट कारोबारी हैं. एक भाई है और घर में कई नौकर चाकर (ब्रिजेन्द्र काला, सीमा पाहवा) हैं. स्वीटी सभी की लाडली है. चूंकि स्वीटी ग्रैजुएट हो गई है, घरवाले उसकी शादी के लिए फिक्रमंद हैं.
स्वीटी हायर एजुकेशन के बहाने लंदन जाना चाहती है. लेकिन स्वीटी के भाई बबलू हर हाल में उसे जाने से रोकना चाहता है. उधर, ड्रामा राइटर और डायरेक्टर साहिल मिर्जा एक बड़े फिल्म प्रोड्यूसर का बेटा है. साहिल को थियेटर का पैशन है. उसके पिता चाहते हैं कि वो थियेटर और राइटिंग जैसे फालतू काम की बजाए फ़िल्म इंडस्ट्री ज्वॉइन कर ले.
दुर्घटनावश साहिल और स्वीटी की दिल्ली में मुलाक़ात हो जाती है. स्वीटी के मुंह से ट्रू वाले लव की कहानी सुनने और परिस्थितियों को सच मानकर साहिल, स्वीटी को दिल दे बैठता है. थियेटर में नया करने के बहाने वह मोगा पहुंच जाता है. स्वीटी के घर में साहिल से उसके रिलेशनशिप की चर्चा होती है. साहिल के धर्म को लेकर घरवाले ना नुकर करते हैं. तमाम उतार चढ़ाव के बाद बलवीर चौधरी, साहिल से स्वीटी की शादी कराने को राजी हो जाते हैं.
पहले हाफ में ही कहानी के सभी बड़े किरदार सामने आ जाते हैं. इनमें शौकिया ड्रामा एक्टर छतरो यानी जूही चावला भी हैं, जिन्हें बलवीर चौधरी की उम्रदराज लव इंटरेस्ट के रूप में दिखाया गया है. कहानी में ट्विस्ट तब आता है जब साहिल को स्वीटी की असलियत का पता चलता है. असलियत यह कि वो लेस्बियन है. जिस बात से उसके भाई के अलावा उसके पिता, दादी और तमाम रिश्तेदार अनजान हैं. स्वीटी का "ट्रू लव" कोई और नहीं एक लड़की है. यानी कुहू (रेजीना कसांड्रा). सच्चाई जानने के बाद साहिल तय करता है कि वो स्वीटी के लिए कुछ करेगा. साहिल ने क्या किया, घरवालों को स्वीटी की हकीकत कैसे पता चली, बबलू क्या करता है और बलवीर चीजों को कैसे लेते हैं ये जानने के लिए फिल्म देखने जाना होगा.
पिछले साल सुप्रीम कोर्ट ने धारा 377 रद्द कर दिया था. इस फैसले के बाद समलैंगिक संबंधों को कानूनी मान्यता मिल गई. एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा का निर्माण इसी फैसले के बाद हुआ है. फैसले के बाद ये पहली फिल्म है जिसमें समलैंगिक रिलेशनशिप में रहने वाले लोगों की अपनी परेशानियों को मूवी में दिखाने की कोशिश की गई है. लेकिन शैली चोपड़ा से सबसे बड़ी चूक यह हुई कि वे कहानी का सबसे जरूरी बिंदु ठीक से स्थापित ही नहीं कर पाईं. कहानी में संदेश भी है और मनोरंजन भी लेकिन वह बिखरा बिखरा है. यानी मनोरंजन है लेकिन अलग अलग हिस्सों में.
सस्पेंस बनाने के चक्कर में अच्छी भली कहानी का कबाड़ा हो गया. हुआ यह कि ट्विस्ट के चक्कर में इंटरवल के बाद पता चलता है कि असल में कहानी क्या है, और इसके बाद कहानी जरूरत से ज्यादा ही स्पीड का शिकार हो गई. जो पहले हाफ की वजह से होना ही था. कुहू और स्वीटी की कैमिस्ट्री में, समाज और परिवार की घृणा का सामना करने वाले समलैंगिक लोगों का इमोशन नजर नहीं आता.
एक घंटे से ज्यादा वक्त तक जो लड़की अपने बारे में पिता से खुलकर बात नहीं कर पाती, वो अगले 25 से 30 मिनट में पिता, परिवार और समाज के खिलाफ तनकर खड़ी हो जाती है. एक लिहाज से एक लड़की को देखा तो ऐसा लगा बस लेस्बियन जैसे विषय को छूने और हिंदू मुस्लिम लड़की की शादी और भाषण देकर निकल जाने वाली कहानी भर है. मूल टॉपिक को ज्यादा जगह देना कहानी की डिमांड थी. आख़िरी के 20 मिनट भावुक कर देने वाले और बहुत ही शानदार हैं.
साहिल मिर्जा के रूप में राजकुमार का काम बढ़िया है. पर उनका किरदार ठीक से बुना नजर नहीं आता. शुरू में लगता है जैसे साहिल मिर्जा की अलग ही कहानी है, लेकिन बाद में वो खो जाती है. राजकुमार की पिछली फिल्मों और उनके चयन के आधार पर प्रशंसक उनकी इस फिल्म को देखते हुए सोच सकते हैं कि उन्होंने आखिर ये क्यों की? पहले हाफ में अनिल कपूर, जूही चावला, राजकुमार राव, ब्रिजेन्द्र काला, मधुमती कपूर और सीमा पाहवा की अदाकारी और रह रहकर आने वाले कॉमिक सीन्स, इसे बोझिल होने से बचाते हैं. फिल्म की सबसे अच्छी बात बस यही है.
सोनम कपूर जो मुख्य किरदार हैं वो उतना प्रभावित नहीं करतीं. छोटा ही सही कुहू के रूप में रेजीना कसांड्रा को देखना दिलचस्प है. अनिल कपूर और ब्रिजेन्द्र काला तो अपने फन माहिर हैं ही. जूही चावला भी ठीक ठाक हैं. कैमरा बढ़िया है. पर्दे पर कुछ कुछ शॉट्स देखना फ्रेश लगता है. म्यूजिक भी अपनी जगह सही है. फिल्म के गाने लोग पसंद ही कर रहे हैं. शैली चोपड़ा धर अपने डेब्यू को और यादगार बना सकती थीं. हो सकता है दर्शक थियेटर की बजाए इसे टीवी पर देखना ज्यादा पसंद करें. जाहिर सी बात है बॉक्स ऑफिस पर इससे ज्यादा उम्मीद करना बेमानी है.
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